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परा॑ वीरास एतन॒ मर्या॑सो॒ भद्र॑जानयः। अ॒ग्नि॒तपो॒ यथास॑थ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parā vīrāsa etana maryāso bhadrajānayaḥ | agnitapo yathāsatha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परा॑। वी॒रा॒सः॒। इ॒त॒न॒। मर्या॑सः। भद्र॑ऽजानयः। अ॒ग्नि॒ऽतपः॑। यथा॑। अस॑थ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:61» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के उपदेश विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग (यथा) जैसे (अग्नितपः) अग्नि से तपानेवाले (वीरासः) विद्या और बल से व्याप्त (मर्यासः) मनुष्य (परा) दूर के लिये (एतन) प्राप्त हों और (भद्रजानयः) कल्याण के जाननेवाले (असथ) होवें, वैसे वे सत्कार करने योग्य होवें ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो बन्धन के साधन और पाप के आचरण का त्याग कर और त्याग करा के और मुक्ति के साधन को ग्रहण कर और ग्रहण करा के सब को आनन्दित करते हैं, उनको सब आनन्दित करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वदुपदेशविषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यथाऽग्नितपो वीरासो मर्यासः परैतन भद्रजानयोऽसथ तथा ते सत्कर्त्तव्यास्युः ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परा) दूरार्थे (वीरासः) व्याप्तविद्याबलाः (एतन) प्राप्नुत। अत्रेण्गतावित्यस्माल्लोटि युष्मद्बहुवचने तप्तनप्तनथनाश्च (अष्टा०७.१.४५) इति तनबादेशः। (मर्यासः) मनुष्याः (भद्रजानयः) ये भद्रं कल्याणं जानन्ति ते (अग्नितपः) येऽग्निना तापयन्ति ते (यथा) (असथ) भवथ ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये बन्धनसाधनं पापाचरणं त्यक्त्वा त्याजयित्वा मुक्तिसाधनं गृहीत्वा ग्राहयित्वा सर्वानानन्दयन्ति तान्सर्व आनन्दयन्तु ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे बंधनात अडकविणाऱ्या साधनांचा व पापाचरणाचा त्याग करून करवून मुक्तीच्या साधनांचा स्वीकार करून करवून सर्वांना आनंदित करतात त्यांना सर्वांनी आनंदित करावे. ॥ ४ ॥